युगावतार आचार्यप्रवर विद्यासागर महाराज मनुष्यमात्र के शुभचिंतक
ललितपुर। युगपुरुष आचार्य विद्यासागर द्वारा प्रणीत मूक माटी महाकाव्य युगान्तकारी कृति है। अत: मूलत वे ऐसे कवि हैं जो हर समय मानवता की मातृभाषा बोलते है। उपनिषद के महावाक्य में कहा गया है कविर्मनीषी परिभू: स्वयभू। यथा तथ्यतोह्यथार्न व्यदधात-शाश्वतीभ्य: समाभ्य: अर्थात कवि मन का स्वामी, विश्व प्रेम से भरा हुआ, आत्मनिष्ठ, यथार्थ भाषी, शाश्वत काल पर दृष्टि रखने वाला। समुद्र जैसे सब नदियों को अपने उदर में समा लेता है, उसी प्रकार समस्त ब्रह्मांड को अपने प्रेम से ढक ले इतनी व्यापक बुद्धि आचार्यश्री की वाणी में पग पग पर दृष्टिगोचर होती है। काव्य का लक्ष्य विश्व का कल्याण है। उसका उद्देश्य दुनिया को प्रतिबिम्बित करना नहीं, उसे सुधारना है। वह यथार्थ का दर्पण नहीं है, बल्कि अनुभव का पुनर्निर्माण है। केवल ही नहीं, बल्कि भी- भी करुणावतार विद्यासागर की दोनों आँखों के तारे हैं जो सर्वसमावेशी सम्यक दृष्टि से ओतप्रोत हैं। निसन्देह ऐसे संत भगवान के अवतार हैं। समाज की आंखें हैं। धर्म के सूर्य हैं और सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य है कि मनुष्य को समस्त बाधाओं से मुक्त किया जा जाय जिससे कि बिना शर्त वे एक दूसरे से प्रेम करना, अब और देर किये बिना सीख लें। सभी महात्माओं का एक स्वर से कहना है कि सारी बीमारियां पहले मन को बीमार करती हैं फिर तन को, देरसवेर मनुष्य इतना मानसिक रूप से शक्तिशाली है कि अंतत: उसने कोविड 19 का टीका खोज ही लिया। इसलिए आचार्यश्री की विनोदमयी शैली में मुझे कहना चाहिए-का-रोना ? करो .....ना।